Saturday, January 4, 2020

मन

मन पागल भँवरा जीवन का 
जो कली - कली मंडराता है 
खुशियों की खातिर लपक-झपक 
फूलों पर चाल फिराता है 
नवजीवन की बगिया में 
कौतूहल दिखलाता है 
रस चूस-चूस कर फूलों का 
अपना मन बहलाता है 
कलियों की कलह उसे नहीं 
वह अपनी जान बचाता है 
कभी -कभी ज्यादा लालच में 
कलियों से बिंध जाता है 
मन नवमोदित कलह कलह कर 
खुद जीवन व्यर्थ गवाता है 
अपनी पगडण्डी स्वयं चुनो 
जीवन के धागे स्वच्छ बुनो 
जीवन को कंटक मुक्त करो 
शुभ जीवन के बस  पुष्प चुनो 
अपने भँवरे मन को जन 
श्वेताम्बर कर सकता है 
भाव, विनोद, विनय निश्छल हो 
आत्मदीप्ति उज्जवल पुलकित हो 
नव रंग खिले नव पुष्प मिले 
मन जब श्वेत वर्ण हो जाता है 
क्यों जीवन व्यर्थ गवाता है 
मन पागल भँवरा जीवन का 
जो कली कली मंडराता है। 



संदीप गोस्वामी 

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