है अँधेरा बहुत, लौ के फ़िराक में हूँ आजकल
माना कि ज़मी है मेरा आशियाना
फिर भी आसमान के फ़िराक में हूँ आजकल ।
बदलते वक्त को किसने देखा है
कि ले ये कौन सी करवट
यही वजह है कि दवा के फ़िराक में हूँ आजकल ।
रंजिशे हर राज़ को उजागर कर रही है आजकल
रंगो में भी बटवारे की बू है आजकल
नासाज सी जिंदगी मुझे लगता है
ये तेरा बसेरा नहीं
मतलबी कौम का बस फ़साना है आजकल।
आओ बैठो अपनी दहलीज पर प्यार से
इंतजार इसको भी है अपनों का आजकल
चंद लम्हो कि जिंदगी जहन्नुम न बने
इसी से बचने के फ़िराक में हूँ आजकल।
संदीप गोस्वामी
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